बन्ध।जालन्धरबन्ध।उड्डियानबन्ध।मूलबन्ध।महाबन्ध।
Bandha । Jalandhar Bandh । Uddiyan Bandh। Moolbandh । Maha Bandha ।
Bandha. Jalandhar Bandh. Uddiyan Bandh. Moolabandha योग में कुण्डली जागरण करना हो या सातों चक्रों को सक्रिय करना हो इसके लिए बन्ध लगाने में सिद्वि प्राप्त करना अनिवार्य होता है। कुण्डली जागरण करने या सातों चक्रों को सक्रिय करने में बन्ध का महत्वपूर्ण योगदान है। आज हम बन्ध। जालन्धर बन्ध। उड्डियान बन्ध। मूलबन्ध। Bandha. Jalandhar Bandh. Uddiyan Bandh. Moolabandha यौगिक बंध के बारे में चर्चा करेंगे। बन्ध क्या है और कितने प्रकार के होते है।इनके अभ्यास की विधि और उपयोगिता के बारे में जानकारी प्राप्त करेगें। बंध का अर्थ बंधन होता है। जो शरीर के विभिन्न भागों में ऊर्जा का संचार होता है,उस ऊर्जा को योग की विधि से रोककर, संचित करने का कार्य करता है या अन्य अंगों में प्रवाहित करता है, उसे यौगिक बन्ध कहते हैं। यौगिक बन्ध मुद्राएं सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करती है।मुद्राओं की सिद्व से शरीर की ऊर्जा को जागृत किया जा सकता है। ऊर्जा के जागरण से शरीर के सात चक्र प्रभावित होते है। जिससे शरीर की ऊर्जा को व्यक्ति स्वयं नियिं़त्रत कर सकता है। इन बन्धों की सिद्वि से ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर कुण्डलिनी को जागृत करने में सफल होती है।
योगी की हमेशा जिज्ञासा रहती है, कि वह समाधि प्राप्त करे,कुण्डलिनी जागृत करें और कुण्डलिनी का जागरण बिना बन्ध की सफलता के प्राप्त नहीं हो सकता। बन्ध मात्र कुण्डलिनी जागरण के लिए ही उपयोगी नहीं है। इसकी सिद्वि से नाड़ी शुद्विकरण भी होता है। जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। योगी अपने प्राणों को नियत्रित कर सफलतापूर्वक कुंडली जागरण कर सकता है।
यौगिक बंध कितने प्रकार के होते है,
बंध मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं। जालंधर बंध, उड्डियान बंध, मुल बंध और महा बंध।
जालंधर बंध
जालंधर बंध लगाने की विधि
इसके लिए सिद्धासन या पद्मासन में बैठ कर, हथेलियों को घुटनों पर रखें और आंखों को बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दीजिए तथा धीरे-धीरे सांसों को अंदर लेकर रोक कर रखे। इसके बाद सिर को झुकाकर अपनी थोड़ी को गले पर कण्ठकुप पर इस प्रकार लगावें कि थोड़ी बिलकुल गला से चिपक जाए।इस स्थिति में सीना एकदम बाहर को निकला हुआ तना होना चाहिए। नये साधक को इस स्थिति में तब तक रहना चाहिए जब तक उसे सांस लेने में बैचेनी महसूस नहीं हो रही हो । बैचेनी होने पर इस बन्ध को खोल कर सामान्य स्थिति में आ जाना चाहिए। इस बन्ध में इड़ा और पिंगला नाड़ी बन्द हो जाती है,और ऊर्जा को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश का रास्ता मिल जाता है।
लाभ
इसके अभ्यास से शरीर के उपरी भाग की नाड़ीयों का शुद्विकरण हो जाता है। नाड़ीयों एव ऊर्जा पर नियत्रण रहता है। मेरुदंड स्वस्थ रहता है जिस कारण रोग दूर होते हैं और व्यक्ति स्वस्थ रहता है।
उड्डियान बंध लगाने की विधि
पेट की आंतों को बलपूर्वक पीठ की तरफ खिचनें की क्रिया को उड्डियान बंध कहते हैं।
इस बंध को दो तरह से किया जा सकता है, खड़े होकर और बैठ कर।
खड़े होकर उड्डियान बंध करने की विधि
उड्डियान बंध के लिए अपने दोनों पैरों में दो फीट के लगभग अन्तर रखते हुए खड़े हो जायें। कमर को हल्का सा आगे की ओर झुका लें और अपने हाथों को अपने घुटनों पर रखें। सांसों को अन्दर की और खींचे बाहर निकाले, इस क्रिया को चार-पॉच बार दोहरावें। उसके बाद श्वास को बाहर निकाल कर अपने पेट को सिकोड़ते हुए पीठ की और चिपकाने का अभ्यास करें, जब तक पेट में गढ़ा जैसी आकृति दिखाई नहीं देने लग जाये, इस स्थिति को आप तब तक बनाये रखें, जब तक आप इसे आसानी से कर सकें।तब तक इस अभ्यास को दोहरावें,
यह भी ध्यान रहे कि एक बार में आठ-दस से अधिक बार इस का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
बैठकर उड्डियान बंध करने की विधि
सुखासन या पद्मासन की स्थिति में बैठें,घुटनों पर अपने हाथां की हथेलियों को रखकर हल्का सा आगे की और झुकें। सांसों को अन्दर की और खींच,े बाहर निकाले इस क्रिया को चार-पॉच बार दोहरावें। उसके बाद स्वांस को बाहर निकाल कर अपने पेट को सिकोड़ते हुए पीठ की और चिपकाने का अभ्यास करें, जब तक पेट में गढ़ा जैसी आकृति दिखाई नहीं देने लग जाये तब तक इस अभ्यास को दोहरावें।यह भी ध्यान रहे कि एक बार में आठ-दस से अधिकबार इस का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
इस स्थिति को आप तब तक बनाये रखें जब ताज आप इसे आसान से कर सकें।
लाभ
हम जानते हैं कि हमारी शारीरिक नाड़ीयों का सबसे बड़ा जक्ंशन हमारी नाभि में ही होता है। उड़ड़ीयान बन्ध का सबसे अधिक प्रभाव भी हमारी नाभि पर ही होता है,जिससे हमारे मणिपुर चक्र को सक्रिय होने में बहुत अधिक सहायता मिलती है। जिससे हमारी नाड़ीयों एवं इस क्षे़़त्र में स्थिति अन्य अंगों की भी मालिस अच्छी तरह से होने के कारण वे स्वस्थ बनें रहते है। जिस कारण हमारी जठराग्नि अच्छी तरह से प्रज्वलित होने के कारण भोजन अच्छा पचता है,कब्ज आदि की बिमारियां भी नहीं हो पाती। शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति सही ढ़ंग से होती है। सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होने में सहायता मिलती है। इसके अभ्यास से तोंद भी कम होती है।
मूल बंध करने की विधि
प्राणायाम करते समय गुदा एवं जनेन्द्रिय की मांसपेशियों को संकुचित कर उपर की और खिंचने क्रिया को मूल बन्ध कहते हैं।
मूलबन्ध करने की विधि
मूलबन्ध लगाने के लिए सिद्धासन में बैठना सबसे उपयुक्त माना गया है। सिद्वासन में बैठने के उपरान्त अपनी एड़ी को गुदा एवं जनेन्द्रिय के मध्य सटाकर हल्का सा दबाव बनाएं और अपनी हथेलियों को हल्के दबाव के साथ घुटनो पर रखें,और सांस को धीरे धीरे अंदर खींच कर रोके रखें। मूलाधार प्रदेश की पेशियों को ऊपर की ओर खींचते हुए गुदा क्षेत्र को संकुचित करें। थोड़ी-थोड़ी देर के लिए समान रूप से संकुचित एवं शिथिल करते रहें।
दूसरे चरण में धीरे धीरे जनेन्द्रिय को संकुचित करे और संकुचन को बनाये रखे.।
इसमें प्रारम्भ में गुदा एवं मूत्र क्षेत्र भी सिकुड़ जाता है। किन्तु जैसे जैसे सजगता और नियंत्रण बढ़ता जायेगा । सामान्य श्वसन करते रहे श्वास को न रोके.
अन्त में मूलबंध को ढीला करे । इस क्रिया को 10 बार किया जा सकता है।
लाभ
इस क्रिया को करने से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता है। इस बन्ध में अपानवायु ऊपर की और गति कर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर कुण्डलिनी के मुलाधार चक्र को सक्रिय करती है। इससे वीर्यक्षरण नहीं होता,ब्रहम्चर्य की रक्षा होती है।स्तम्भन शक्ति मजबूत होती है।
महाबन्ध करने की विधि
उपर उल्लेखित तीनों बन्धों का सम्मिलित रूप महाबन्ध है। इसका नाम महाबन्ध इसलिए दिया गया ह,ै कि इसमें तीनों बन्ध एक साथ लगते है. अर्थात जब जालन्धर बन्ध, उड्डियान बन्ध और मूलबन्ध एक साथ लगते है तब महाबन्ध लगता है.
महाबन्ध लगाने के लिए सबसे पहले सिद्धासन या पद्मासन में बैठ जायें,दोनों हाथों को घुटनों पर रखें। पुरे शरीर को शिथिल कर,े गहरी श्वास फेफड़ों में भरें। पूरी श्वास को बाहर निकाल ले और श्वास को बाहर ही रोक।
सबसे पहले जालन्धर बन्ध, फिर उड्डियान बन्ध और आखिर में मूलबन्ध इसी क्रम में लगायें।
जितनी देर तक आराम से बिना जोर लगाये बन्धों और श्वास को बिना बैचैनी एंव परेशानी के आराम से रोक सकते हो रोकें।
बन्ध को खोलने के लिए जो बन्ध सबसे बाद में लगाया वह पहले, उसी क्रम में मूलबन्ध,उड्डियान बन्ध और आखिर में जालन्धर बन्ध को खोलें। धीरे धीरे श्वास को अन्दर लें।
यह महाबन्ध का एक चक्र हुआ.
तीनों बन्ध को लगा लेने के बाद आन्तरिक रूप से मूलाधार, उदर, और गले को देखें /अनुभव करें।
इन चक्रों की संख्या धीरे धीरे बढ़ानी चाहिए। अभ्यास हो जाने के बाद एक-एक कर के 9 आवृति तक महाबन्ध का अभ्यास किया जाना चाहिए।
इसके अभ्यास के निम्नलिखित लाभ होते है-
महाबन्ध से तीनों बन्धों (जालन्धर बन्ध, उड्डियान बन्ध और मूलबन्ध) का लाभ प्राप्त होता हैं।
महाबन्ध से शरीर के क्षय, ह््रास और बुढ़ापे की प्रक्रियायें थम जाती हैं और शरीर के प्रत्येक कोशिका को पुनर्जीवन प्राप्त होता हैं।
महाबन्ध ध्यान के पूर्व मन को अन्तर्मुखी बनाता हैं।
महाबन्ध के अभ्यास में सिद्वि प्राप्त हो जाये, तो यह मुख्य सात चक्रों को पूरी तरह से जागृत कर सकता है।
महाबन्ध प्राण, अपान वायु और समान वायु का विलय कराता है।
बन्धों के अभ्यास में सावधानियॉ –
हर्निया, आमाशय या आँतों के अल्सर से पीड़ित,गर्भवती महिलाओं,उच्च रक्तचाप अथवा निम्न रक्तचाप, हृदय रोगीयों, को बन्धों का अभ्यास नहीं करना चाहिए अथवा अपने चिक्त्सिक से परामर्श करना चाहिए।
बन्ध हमेशा का अभ्यास किसी अनुभवी शिक्षक के मागदर्शन में ही करना चाहिए।
इस पोस्ट का उद्देश्य आपको जानकारी देना मात्र है। इसका किसी चिकित्सकीय रूप में प्रयोग करने से पहले किसी चिकित्सक या योग प्रशिक्षक से परामर्श करना चाहिए। किसी रोग से पीड़ीत होने पर अपने चिकित्सक से परामर्श के उपरान्त ही योगाभ्यास करना चाहिए एवं योग की शुरुआत हमेशा किसी प्रशिक्षित योग्य प्रशिक्षक के मार्गदशन में ही करनी चाहिए।
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योग में अष्टांग क्यों आवश्यक है ?
योग में अष्टांग का पालन इसलिए आवश्यक है कि अष्टांग योग द्वारा शारीरिक व मानसिक सफाई करने के उपरांत योग का मार्ग पर आसान हो जाता है।
अष्टॉग योग में कितने और कौन कोन से नियम है ?
योग में पॉच नियम है (1)शौचः (2)संतोष (3)तप (4)स्वाध्याय (5)ईश्वर प्रणिधान
अष्टॉग योग में कितने और कौन कोन से यम है ?
योग में पॉच यम है (1)अहिंसा (2)सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह
5 responses to “बन्ध। जालन्धर बन्ध। उड्डियान बन्ध। मूलबन्ध। Bandha. Jalandhar Bandh. Uddiyan Bandh. Moolabandha”
उक्त विधि में सही से निपुण हो जाये तो बहुत लाभदायक है
बहुत अच्छी स्वास्थ्य वर्धक जानकारी दी, धन्यवाद
Thanks
Thanks
थैंक्स